Kisan andolan kya hai? Kisan andolan kyu kar rahe hai kya hai kisano ki maang और कहा कहा हुए किसान आंदोलन ?
Kisan andolan kya hai? Kisan andolan kyu kar rahe hai kya hai kisano ki maang?
पहले सरल भाषा मे जानते है की किसान आंदोलन क्या है और क्यु हो रहा है? -
केंद्र सरकारी कहती है की हमने नया किसान बिल पारित किया जिसमे यह वर्णित है की किसान मंडी के निर्धारित दाम पर ही नही बल्कि बाहर के जगहों पर भी अपने दामों पर अपना अनाज बेच सकता है किन्तु किसान कहते है की सरकार ऐसा निर्धारित करें की उन्हें msp price से कम दाम नही मिलना चाहिए कही भी नही तो पता चला की मंडी के बाहर अनाज बेचने से चिढ़ा मंडी के ठेकेदार उन्हें कम से कम दाम पर उनके अनाज का सौदा करें परिणामस्वरुप किसान ना घर का रहेगा ना घाट का l
किन तीन कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं?
किस कानून को लेकर क्या है किसानों की शंका और उस पर क्या है सरकार का दावा?
2 महीने पहले
किन तीन कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं? किस कानून को लेकर क्या है किसानों की शंका और उस पर क्या है सरकार का दावा?|एक्सप्लेनर,Explainer - Dainik Bhaskar
संसद ने खेती से जुड़े तीन महत्वपूर्ण सुधार विधेयकों को मंजूरी दे दी है। इसे लेकर किसानों ने शुक्रवार को आंदोलन किया। पंजाब और हरियाणा में सबसे ज्यादा असर देखने को मिला। सुबह से ही किसान रेलवे ट्रैक पर आकर बैठ गए और कई जगहों पर उन्होंने विरोध-प्रदर्शन किया। आइए जानते हैं, क्या हैं यह तीन विधेयक? इन पर क्या है किसानों की शंका? और क्या कहती है सरकार?
1. कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020
शंका: न्यूनतम मूल्य समर्थन (एमएसपी) प्रणाली समाप्त हो जाएगी। किसान यदि मंडियों के बाहर उपज बेचेंगे तो मंडियां खत्म हो जाएंगी। ई-नाम जैसे सरकारी ई ट्रेडिंग पोर्टल का क्या होगा?
सरकार का दावाः एमएसपी पहले की तरह जारी रहेगी। एमएसपी पर किसान अपनी उपज बेच सकेंगे। इस दिशा में हाल ही में सरकार ने रबी की एमएसपी भी घोषित कर दी है। मंडियां खत्म नहीं होंगी, बल्कि वहां भी पहले की तरह ही कारोबार होता रहेगा। इस व्यवस्था में किसानों को मंडी के साथ ही अन्य स्थानों पर अपनी फसल बेचने का विकल्प मिलेगा। मंडियों में ई-नाम ट्रेडिंग जारी रहेगी। इलेक्ट्रानिक प्लेटफॉर्मों पर एग्री प्रोडक्ट्स का कारोबार बढ़ेगा। पारदर्शिता के साथ समय की बचत होगी।
2. कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020
शंकाः कॉन्ट्रेक्ट करने में किसानों का पक्ष कमजोर होगा,वे कीमत निर्धारित नहीं कर पाएंगे। छोटे किसान कैसे कांट्रेक्ट फार्मिंग करेंगे? प्रायोजक उनसे दूरी बना सकते हैं। विवाद की स्थिति में बड़ी कंपनियों को लाभ होगा।
सरकार का दावाः कॉन्ट्रेक्ट करना है या नहीं, इसमें किसान को पूरी आजादी रहेगी। वह अपनी इच्छानुसार दाम तय कर फसल बेचेगा। अधिक से अधिक 3 दिन में पेमेंट मिलेगा। देश में 10 हजार फार्मर्स प्रोड्यूसर ग्रुप्स (एफपीओ) बन रहे हैं। ये एफपीओ छोटे किसानों को जोड़कर फसल को बाजार में उचित लाभ दिलाने की दिशा में काम करेंगे। कॉन्ट्रेक्ट के बाद किसान को व्यापारियों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। खरीदार उपभोक्ता उसके खेत से ही उपज लेकर जा सकेगा। विवाद की स्थिति में कोर्ट-कचहरी जाने की जरूरत नहीं होगी। स्थानीय स्तर पर ही विवाद निपटाया जाएगा।
3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक -2020
शंकाः बड़ी कंपनियां आवश्यक वस्तुओं का स्टोरेज करेगी। उनका दखल बढ़ेगा। इससे कालाबाजारी बढ़ सकती है।
सरकार का दावाः निजी निवेशकों को उनके कारोबार के ऑपरेशन में बहुत ज्यादा नियमों की वजह से दखल महसूस नहीं होगा। इससे कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ेगा। कोल्ड स्टोरेज एवं फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ने से किसानों को बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर मिलेगा। किसान की फसल खराब होने की आंशका दूर होगी। वह आलू-प्याज जैसी फसलें निश्चिंत होकर उगा सकेगा। एक सीमा से ज्यादा कीमतें बढ़ने पर सरकार के पास उस पर काबू करने की शक्तियां तो रहेंगी ही। इंस्पेक्टर राज खत्म होगा और भ्रष्टाचार भी l
वैसे मित्रो देखा जाये तो ऐसे कई ऐतिहासिक किसान आंदोलन पहले भी हो चुके है आईये इन आंदोलनो पर विस्तार से जानते है -
देश में नील पैदा करने वाले किसानों का आंदोलन, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली में जो आंदोलन हुए थे, इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी, वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं ने किया। आमतौर पर किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी, लेकिन चूंकि अंग्रेजों की नीतियों पर सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली।
सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। वास्तव में जितने भी 'किसान आंदोलन' हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। उस समय के समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।
आंदोलनकारी किसान चाहे तेलंगाना के हों या नक्सलवाड़ी के हिंसक लड़ाके, सभी ने छापामार आंदोलन को आगे बढ़ाने में अहम योगदान दिया। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजों ने देशी रियासतों की मदद से दबा तो दिया, लेकिन देश में कई स्थानों पर संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में धधकती रही। इसी बीच अनेकों स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आंदोलन हुए। नील पैदा करने वाले किसानों का विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आंदोलन के रूप में जाने जाते हैं।
सन् 1918 में खेड़ा सत्याग्रह गांधीजी द्वारा शुरू किया गया, वहीं बाद में 'मेड़ता बंधुओं' (कल्याणजी तथा कुंवरजी) ने भी सन् 1922 में बारदोली सत्याग्रह को प्रारंभ किया था। बाद में इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल के हाथों में रहा। हालांकि किसानों का सबसे प्रभावी और व्यापक आंदोलन नील पैदा करने वाले किसानों का था।
यह आंदोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ बंगाल में सन् 1859-1860 में किया गया। अपनी आर्थिक मांगों के संदर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस समय का एक विशाल आंदोलन था। अंग्रेज अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली-सी रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को 'ददनी प्रथा' कहा जाता था।
इसी तरह का पहला विद्रोह (पाबना आंदोलन) जिले के किसानों से शुरू हुआ था। बंगाल के पाबना जिले के काश्तकारों को सन् 1859 में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, लेकिन इसके बावजूद जमींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी जमीन के अधिकार से वंचित किया। जमींदारों की ज्यादती का मुकाबला करने के लिए सन् 1873 में पाबना के यूसुफ सराय के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभाएं आयोजित करना होता था, ताकि किसान आधिकाधिक रूप से अपने अधिकारों के लिए सजग हो सकें।
दक्कन का विद्रोह : गौरतलब बात यह है कि यह एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा वरन देश के विभिन्न भागों में फलाफूला। यह आग दक्षिण में भी लगी, क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।
उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन : होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा निर्देशन के परिणामस्वरूप फरवरी, सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में 'किसान सभा' का गठन किया गया। सन् 1919 के अंतिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आंदोलन' नामक आंदोलन चलाया।
मोपला विद्रोह : केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में विद्रोह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आंदोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' चर्चित थे। सन् 1920 में इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया और शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया।
कूका विद्रोह : कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज़ सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। सन् 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हें कैद कर रंगून (अब यांगून) भेज दिया गया, जहां पर सन् 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।
रामोसी किसानों का विद्रोह : महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।
ताना भगत आंदोलन : इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1914 में बिहार में हुई। यह आन्दोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक 'जतरा भगत' थे, जो कि इस आन्दोलन से सम्बद्ध थे। 'मुण्डा आन्दोलन' की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद 'ताना भगत आन्दोलन' शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आन्दोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए 'पंथ' के निर्माण का आन्दोलन था। इस मायने में यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे।
तेभागा आन्दोलन : किसान आन्दोलनों में सन् 1946 का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने 'फ्लाइड कमीशन' की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का 'तेभागा आंदोलन' फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था। यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। 'किसान सभा' के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।
तेलंगाना आंदोलन : आंध्रप्रदेश में यह आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू किया गया था। सन् 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलन से अलग था। अब किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश मांगें आर्थिक होती थीं। किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।
बिजोलिया किसान आंदोलन : यह 'किसान आन्दोलन' भारतभर में प्रसिद्ध रहा जो मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था। बिजोलिया किसान आन्दोलन सन् 1847 से प्रारंभ होकर करीब अर्द्ध शताब्दी तक चलता रहा। किसानों ने जिस प्रकार निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों का संगठित होकर मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया।
अखिल भारतीय किसान सभा : सन् 1923 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 'बिहार किसान सभा' का गठन किया। सन् 1928 में 'आंध प्रान्तीय रैय्यत सभा' की स्थापना एनजी रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चैधरी ने 'उत्कल प्रान्तीय किसान सभा' की स्थापना की। बंगाल में 'टेंनेंसी एक्ट' को लेकर सन् 1929 में 'कृषक प्रजा पार्टी' की स्थापना हुई। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक 'अखिल भारतीय किसान संगठन' बनाने की योजना बनाई।
चम्पारण सत्याग्रह : चम्पारण का मामला बहुत पुराना था। चम्पारण के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे 'तिनकठिया पद्धति' कहते थे। 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाजार समाप्त हो गए। नील बागान के मालिकों ने अपने कारखाने बंद कर दिए और किसानों की नील की खेती से छुटकारा पाने की इच्छा भी पूरी हो गई।
खेड़ा सत्याग्रह : चम्पारण के बाद गांधीजी ने सन् 1918 में खेड़ा किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया। खेड़ा गुजरात में स्थित है। खेड़ा में गांधीजी ने अपने प्रथम वास्तविक 'किसान सत्याग्रह' की शुरुआत की। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की, लेकिन उन्हें कोई रियायत नहीं मिली। गांधीजी ने 22 मार्च, 1918 को खेड़ा आन्दोलन की बागडोर संभाली। अन्य सहयोगियों में सरदार वल्लभभाई पटेल और इन्दुलाल याज्ञनिक थे।
बारदोली सत्याग्रह : सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुका में सन् 1928 में किसानों द्वारा 'लगान' न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल 'कुनबी-पाटीदार' जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि सभी जनजाति के लोगों ने हिस्सा लिया।
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